HISAR,22.03.24-इस बहुत प्यारे और बहुत भावुक विषय पर कुछ कहने के लिए आपने मुझे आमंत्रित किया, जिसके लिए मैं प्रिंसिपल, प्रबंधन समिति और राष्ट्रीय सेवा योजना इकाई का हृदय तल की गहराइयों से आभारी हूं । मुझे आपको 'माटी' से चल कर 'देश' तक ले जाना है और सिर्फ 'मैं' ही 'मैं' से लेकर 'हम' तक ले जाने की जिम्मेदारी दी गयी है । मैं अपनें छोटे छोटे कदमों से 'मिट्टी' का सफर बताना चाहूंगा, जो मैंने तय किया और आप भी यही सफर तय करेंगे या कर रहे होंगे । मेरा जन्म पंजाब के होशियारपुर में हुआ लेकिन यह सिर्फ मेरी जन्मभूमि कही जा सकती है। मेरे दादा व पिता नवांशहर के रहने वाले थे और मेरी असली माटी नवांशहर कही जा सकती है । थोड़ा सा बचपन बीता तो पता चला कि जालंधर हमारा जिला है तो मेरी माटी की सीमा बढ़कर जिला जालंधर हो गयी । पूरा जालंधर अपनी माटी सा लगने लगा, अपना सा लगने लगा । फिर थोड़ी और होश आई तब पता चला कि हमारे सारे क्षेत्र को 'तो 'दोआबा' कहा जाता है यानी दो दरिआयों सतलुज और ब्यास के बीच की माटी ! इस तरह अब मुझे लगा कि मेरी माटी तीन चार जिलों में फैल गयी और फिर कुछ साल बीते, बचपन छूटा तब पता चला कि हमारे जिले में एक छोटा सा गांव है, जिसका नाम है -खटकड़ कलां ! यह सिर्फ एक छोटे से गांव का नाम नहीं है । यह शहीद ए आज़म भगत सिंह का पैतृक गांव है, जिसे कल यानी हर साल 23 मार्च को इसकी मिट्टी को सारा देश मस्तक नवाता है,शीश झुकाता है ! इस तरह मेरी माटी सिर्फ नवांशहर, जालंधर, दोआबा से उठ कर कब 'देश की माटी' बन गयी, कुछ पता ही नहीं चला ! शहीद भगत सिंह ने भी माटी के महत्त्व को सिर्फ बारह तेरह साल की उम्र में ही समझ लिया था, जब सन् 1919 को बैसाखी वाले दिन जलियांवाला कांड हुआ तब दूसरे ही दिन लाहौर से अमृतसर अकेले ही रेलगाड़ी में आया, सिर्फ अपनी बहन बीबी अमर कौर को बता कर और जलियांवाला बाग से क्या लिया? वह मिट्टी, जो निहत्थे देशवासियों के खून से रंगी थी ! उस मिट्टी को लाकर रखा और फिर आप सोचो, इस मिट्टी ने क्या रंग दिखाया, क्या करिश्मा किया कि वह बारह तेरह साल का बालक एक क्रांतिकारी बन गया, जो छोटी आयु में ही अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ गाने लगा-मेरा रंग दे बसंती चोला
मायें रंग दे बसंती चोला !
इसे पहन झांसी की रानी
मिट गयी अपनी आन पे
तभी तो यह बात आपको याद आ रही होगी कि मैं 'अपनी झांसी' किसी को नहीं दूंगी, यही कहा था झांसी की रानी ने और जीते जी अपनी माटी पर किसी विदेशी को कदम नहीं रखने दिया ! अब आप समझ गये होंगे 'माटी' किसे कहते हैं और 'माटी का मोल' चुकाना किसे कहते हैं !
आपको बता दूं कि इसी खटकड़ कलां के गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में मैंने एक प्रिंसिपल के रूप में ग्यारह साल बिताये, जिन्हें मैं अपने जीवन के स्वर्ण वर्ष और स्वर्ण काल कहता हूं ! वहां बने शहीद स्मारक को आप कभी देखने जाओ तो वहां आज भी शीशे के एक छोटे से मर्तबान में अंग्रेजी अखबार 'द ट्रिब्यून' के 24 मार्च, 1931 के अंक में लिपटींं‌ शहीदों की अस्थियां यानी कुछ बचे हुए 'फूल' पड़े हैं, जिन्हें उनकी बहन बीबी अमर‌कौर राख में से चुन कर फिरोजपुर के सतलुज किनारे से लाई थीं और सचमुच यह गाना आपके मन में अपने आप गूंजने लग गया होगा
तेरी मिट्टी में मिल जावां...
गुल बन के मैं खिल जावां
तेरी नदियों में बह जावां
बस, इतनी सी है दिल की आरज़ू !
इसी तरह मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप भिवानी से हैं या इसके आसपास के गांवों से हैं और आपको पहले अपने गांव, फिर शहर और फिर इसके लोगों से प्यार उमड़ता है और उमड़ना भी चाहिए । यहां के शहीदों से आपका मस्तक ऊंचा उठता है और आप भिवानी की माटी से चलकर धीरे धीरे देश की माटी तक पहुंच जाते हैं ! आपको क्या बताना कि आपका दक्षिण हरियाणा कितने शहीद आज तक दे चुका है लेकिन मांयें अपने बेटों को सेना में भेजना नहीं छोड़तीं ! यही जज़्बा ही तो है, अपनी माटी का कर्ज़ उतारने का ! यह बात मैंने भारत एक सांस्कृतिक यात्रा में अपने अंदर तक महसूस की, जब हम ग्यारह दिन तक रेल यात्रा में रहे, रामेश्वरम्, कन्याकुमारी हमारा पहला पड़ाव था और फिर मदुरई, तिरुवनंतपुरम और तिरूपति बालाजी सब जगह गये, न हमारी भाषा एक थी, न हमारा पहरावा एक था और यहां तक कि खान पान भी एक न था, रंग रूप भी एक जैसा न था । हम भाषा और पहरावे में बेशक अलग अलग थे लेकिन दिल की भाषा एक थी हमारी, हमारी माटी एक थी, भारतमाता ! हम सबने इसी की गोद में जन्म लिया था । कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारी भारतमाता एक है । हम अलग अलग कहां थे, सब एक ही माट…