CHANDIGARH,01.12.34--पंजाब की विरासत में हर वो चीज मौजूद जो पंजाबियों को उनके संस्कृति से जोड़ती है, सभी के लिए ये जगह आकर्षण का केंद्र रही चंडीगढ़। 31 नवंबर,2024 पंजाबी आज विदेश का रुख कर रहे हैं। न तो घर बच पा रहा है और व ही विरासत। पंजाबी अपने विरासत को छोड़ आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन मानसा से आए तरसेम चंद इसे अभी तक संजोये हुए हैं। वे अपने सोहणे पंजाब की विरासत को 14वें राष्ट्रीय शिल्प मेले में लेकर आए हैं, ताकि सभी को असली और पुराने पंजाब से रू-ब-रू करा सकें। 67 साल के तरसेम चंद कलहेरी को लोग भोला कलहेरी के नाम से भी जानते हैं। उन्होंने कहा कि मैं मानसा से ये पंजाब का विरसा लेकर चंडीगढ़ आया हूं। मेरा गांव इतिहास का हिस्सा रहा है और पंजाब के कई गाने कलहेरी नाम पर बने हैं। इसी वजह से मैंने वो विरसा संभाला, जिसे सभी छोड़कर आगे निकल गए। मैं अभी भी इन्हें थामे वहीं पर खड़ा हूं। ये सब सामान ही पंजाब की विरासत है, जो हमें अपने जड़ों से जोड़ती है। अब लोग वो भूल चुके हैं। उन्होंने कहा कि पहले जरूरतों को घर पर ही पूरा किया जाता है। उदाहरण के तौर पर कपड़े दादा-दादी घर पर बनाते तो उसकी इज्जत होती थी। खेत से कपास लाने के बाद उसे बेलते, रुई निकालकर उसे पिंजाकर पूनियां बनाते, पूनी को चरखे पर चढ़ाकर अट्टियां बनतीं और फिर नड़े को दो-तीन बार चढ़ाकर कपड़े में ढाला जाता। कुर्ते, चादरे, कमीज, परने, खेसी, खेस आदि सब कुछ घर पर ही बनता था। आज किसी घर में ये नहीं होता। सब बाहर से अाता है तो उसमें न तो अपनों का प्यार होता है और न ही उस कपड़े का सम्मान हो पाता है। उन्होंने कहा कि सब सामान हमारे बुजुर्गों का है। आज वजन को किलो के हिसाब से तोला जाता है, लेकिन पहले सेर से वजन किया जाता था। इसमें पंसेरी, दो सेरी, सेर, दसेर... होते थे। हमने यहां पर पंजाब के खान-पीन से लेकर रहन-सहन को दिखाने की कोशिश की है। हम खेती का हर वो सामान लाए हैं जो हमारे घर के बुजुर्ग इस्तेमाल में लाते थे। इसके अलावा छज्ज, कड़ाई, बेरनी, मदानियां आदि भी यहां रखी गई हैं। तरसेम कहते हैं कि पहले हमारे घर के सामान पर मुहावरे बनते थे, जैसे ओखली विच सिर दिता, मुड़े दा कि डर...। आज पंजाब के बच्चों को नहीं पता कि इसका अर्थ क्या है और इसके मायने क्या हैं। हम आज घर पर कपड़े भी प्रेस नहीं करते, बल्कि पहले हम घर पर कोयले की प्रेस इस्तेमाल करते थे। प्रेस ने कई रूप लिए और 3 प्रेस हम यहां लेकर आए हैं। पुराने बर्तन हमारे पास हैं, जिन्हें कली कराया जाता था। इसके साथ ही पुराने ग्लास, फोन, ट्रांजिस्टर आदि भी यहां हैं। मैं चाहता हूं ज्यादा से ज्यादा लोग इन्हें देखें और इसके मायने समझें। उन्होंने कहा कि आज हमें दो कदम भी पैदल चलना पसंद नहीं। हम कार का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन पहले मीलों का सफर भी गड्डे(बैल के पीछे लगने वाला हिस्सा) पर किया जाता था। हम जो गड्डा लाए हैं, उसे 15-20 लाख में भी तैयार नहीं किया जा सकता। उसे न तो बनाने वाले बचे हैं और न ही उसे चलाने वाले। इसके अलावा खेती आज ट्रैक्टर और कंबाइन से होती है, जबकि हमारे बुजुर्ग तोता हल, एक पोरी, दो पाेरी आदि इस्तेमाल में लाते थे। ये सही है कि इसका इस्तेमाल आज मुमकिन नहीं, लेकिन हम उन्हें याद तो रखें, कम से कम अपने जहन से निकालें तो न। ये हमारा विरसा है, जिसे हमें ही संजोय रखना है।